रक्षाबंधन
रक्षाबंधन
(मेरी सब बहनों को अपराधबोध के साथ)
रक्षा बहनों को
बाँधो
बांधकर सहेज लो एक
रिश्ता
तब जबकि तुमने
एक दुधमुंही रुलाई
को
एक चित्कार में बदला
है
आख़िरी ठोस मृतपाय...
लड़कपन की मासूम एक
पुलक को
बदल डाला है एक सिसक
में
दबी घुटी घुटी सी
सिसक
जो साल दर साल
खुरचती रहेगी
आत्मा का अंश...
निश्छल एक तरुणाई को
खून के चिकत्तों में
बदल डाला है
जो आँख के कोरों में
बढते हैं दाग बनकर
ता उम्र
चेहरे पर परछाईं सा
छा जाते हैं
काली घनी अंधेरी...
तुमने एक सहज सहचर
को
कुछ गुम चोटों में
तरमीम किया है
दूर तक घसीटा है
अस्तित्व की एक टूटी
बाँह पकड़कर
पटक दिया है दूर
अकेले
नीचे बहुत गहरे
जहां से पहचान क्या
आवाज भी नहीं आती
दुनिया में
तुम्हारी...
यकीन जानो कभी कहीं
आख़िरी इजलास होगी
वो चित्कारें, वो
सिसक, वो धब्बे खून के
वो चोटें सब
सब गवाही देने आएंगी
तब ही शायद ये फैसला
होगा
कि तुमने एक स्त्री
को नहीं
एक सभ्यता को नोचा
है!
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें