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ज़ख्म नए हैं टीस पुरानी

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बहुत दिनों से तरवताल खाली.. गुमसुम.. चुपचाप सा पडा रहा! इतना कुछ पढने को है ब्लॉग की दुनिया में कि लिखने का मौक़ा ही नहीं मिलता ..खैर ..आज अपनी एक पुरानी ग़ज़ल लगा रहा हूँ .. ज़ख्म नए हैं टीस पुरानी कैसे कहूं इसे नई कहानी ! दाग नहीं , तो पड़ जाएगा सूख चुका सब आँख का पानी ! किस्मत की लकीर पोंछ दूं हाँथ नहीं दिल की मनमानी ! आओ कुछ सामान जुटा लें हमें यहीं फिर राह बनानी ! मौला मेरी रज़ा पूछता कह देता दामन पेशानी !!

कुम्भ प्रीमिअर लीग

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कुम्भ पीमीयर लीग स्टेडियम खचाखच भरा था। पैवेलियन हर की पौड़ी पर ही कई नामचीन (नाम जापान और नाम पाकिस्तान भी ) हस्तियॉ मौजूद थी। अजीब सा मैच था आज। कहने को तो कई टीमें थी। जो वैचारिक ,अहसासी और कागजी रुप से तो एक बड़ी टीम का हिस्सा थी. लेकिन मैच शुरु होते ही लगने लगा कि सभी भारतीय खेल शैली के क्लासीकल अंदाज अर्थात डिफेन्सिव फार्म में खेलते हुए एक दूसरे की तरफ गेंद पास करने में लग गई । ये के0पी0एल0 (कुम्भ पीमीयर लीग) का एक महत्वपूर्ण मैच था जो 13-32 के फार्मेंट में खेला जा रहा था। पहला झटका रात को ही लग गया। गौरतलब है कि मैच नाइट -डे-नाइट-डे- नाइट -डे था। मायापुर मिस्टीरियर्स और हरिद्वार हूटर्स एक दूसरे को मिलने वाले पासों से परेशान थे। गेंद कहीं से भी आ जा रही थी। मैदान के आजू बाजू लगी बांउड्रीवाल की स्टिकें (खपच्चियॉ) गेंद रोकने में असमर्थ थीं। वैसे हरिद्वार हूर्टस को एक बडी परेशानी ड्रिंक्स ट्राली से भी थी, जो हूर्टस के कथनानुसार और जिसके प्रमाण रूप में वेा की गयी रिर्काडिंग से डेर्फड लाईव प्रसारण कर सकने की बात कह रहे थे, लगभग दो सौ बार मैदान में आई और न चाहते हुए भी खिलाडियों को दो स

मुल्तवी

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क्या ये महज इत्तेफाक था .. मुझसे लगभग पांचवीं बार ये सवाल किया गया था और मै निरुत्तर रहा हर बार अपनी सारी सहानभूति निचोड़ने के बाद भी मै उन्हें ये समझाने में असमर्थ था कि चमकीली तलवारों , ताज़ी राख के भभूतों और चिलम से अलमस्त आँखों वाले बाबाओं के लम्बे जुलूसों (जिन्हें निकालने संभालने के लिए पूरी सरकार अपने सारे हथकंडों से तत्पर है और यह समझाने के लिए की सरकार का कोई धर्म नहीं होता कागजी कार्यवाही पूरी पूरी है ) के आगे क्यों नहीं भेजा जा सकता हालाँकि मेरे पास इतना एक्सक्यूज है की व्यक्ति की सुरक्षा देश की संप्रभुता एकता और अखंडता के लिए समानता का अधिकार मुल्तवी किया जा सकता है थोड़ी देर के लिए ... जुलूस के गुजर जाने तक .

जवाबदेही

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जवाबदेही दमरू बेचारा.. रात दिन का मेहनती... मानवाधिकार की हजार-हजार कवायदें काम नही आती यहॉ... दिन रात खटता भी है, और मिलता है मजदूरी के नाम पर आधा पौना! बाकी के हिस्सेदार माले मस्त हैं क्यों, क्योंकि ये पूंजीवाद और गणतन्त्र का मिश्रण है जिसमें कन्फयूजन ज्यादा है सिस्टम कम। ये हिस्सेदार अपना भी पाते हैं इसका भी दबाते हैं..... लिकिंक पिन हैं जी मेनेजमेंन्ट थ्यूरी के, अधिक क्रूड भाषा में बोलें तो दलाल। हॉ तो दमरू बेचारा एक दिन मर गया.... नहीं नहीं कहानी खतम नहीं होती यहॉ..... बल्कि यहीं से शुरू होती है..... यह हमारी विडम्बना है कि देश की हर कहानी अंन्त से शुरू होने लगी है। मरा कैसे .डमरू छत से नीचे गिरकर..... छत पर क्या कर रहा था इसके कई जवाब हो सकते हैं... एक जवाब है,`कि छत पर टहल रहा था´..... घोसला घरोन्दा हाउसिंग सोसाइटी की निर्माणाधीन छत पर...... जिस पर अभी लेन्टर पड़ रहा था.... टहल रहा था... ये जबाब कई लोगो के माकूल है, फिट है - फिट है घोसला घरोन्दा के मालिक के लिए, फिट है कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा कंस्ट्रक्शन कम्पनी के मालिक/ ठेकेदार के लिए जिसने इस सोसाइटी के निर्माण का ठेका बीड़ा उ