जवाबदेही

जवाबदेही

दमरू बेचारा.. रात दिन का मेहनती... मानवाधिकार की हजार-हजार कवायदें काम नही आती यहॉ... दिन रात खटता भी है, और मिलता है मजदूरी के नाम पर आधा पौना! बाकी के हिस्सेदार माले मस्त हैं क्यों, क्योंकि ये पूंजीवाद और गणतन्त्र का मिश्रण है जिसमें कन्फयूजन ज्यादा है सिस्टम कम। ये हिस्सेदार अपना भी पाते हैं इसका भी दबाते हैं..... लिकिंक पिन हैं जी मेनेजमेंन्ट थ्यूरी के, अधिक क्रूड भाषा में बोलें तो दलाल।
हॉ तो दमरू बेचारा एक दिन मर गया.... नहीं नहीं कहानी खतम नहीं होती यहॉ..... बल्कि यहीं से शुरू होती है..... यह हमारी विडम्बना है कि देश की हर कहानी अंन्त से शुरू होने लगी है। मरा कैसे .डमरू छत से नीचे गिरकर..... छत पर क्या कर रहा था इसके कई जवाब हो सकते हैं... एक जवाब है,`कि छत पर टहल रहा था´..... घोसला घरोन्दा हाउसिंग सोसाइटी की निर्माणाधीन छत पर...... जिस पर अभी लेन्टर पड़ रहा था.... टहल रहा था... ये जबाब कई लोगो के माकूल है, फिट है - फिट है घोसला घरोन्दा के मालिक के लिए, फिट है कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा कंस्ट्रक्शन कम्पनी के मालिक/ ठेकेदार के लिए जिसने इस सोसाइटी के निर्माण का ठेका बीड़ा उठा रखा है... बाद में कुछ औरों के लिए भी शायद माकूल हो।
दूसरा जबाब जो अचानक सुन्दर सुन्दर तारिकाओ जैसी न्यूज रीर्डस जो समाचार कम एक्सर्पट कमेन्ट्स (नुख्ताचीनी जनाब)के लिए प्रतिबद्ध हैं के चेहरे से आपका फोकस हटाने के लिए स्क्रीन के निचले हिस्से के, जो बाजार की भाषा लिखावटी रूप में आपकी ललचाई ऑखों के सामने से गुजारता है, में फ्लड लाईट की तरह चमका..... और अचानक पूरे स्क्रीन को डस लिया......जवाब ..... `दमरू छत पर काम कर रहा था! निर्माणाधीन छत पर, जिसके नीचे सुरक्षा मानकों को धता बताते हुए कोई पिलर नहीं खड़े थे..... ऐसी परिस्थिति में दमरू काम के बोझ का मारा काम कर रहा था।´
तीसरा जबाब उहापोह और असमन्जस का बयानी जवाब है...... पुलिस का....... फिर से कहा जाये तो फिर एक विडम्बना है.... आज पुलिस का हर जवाब उहापोह और असमन्जस के तार से बंधा निकलता है और हर सवाल घटना की सच्चाई उजागर करने से ज्यादा अपनी बेगुनाही का सबूत ढूढने की कवायद से लिपटा रहता है। जवाब- `दमरू जैसा कि बताया गया.... छत पर था..... और मर गया...... हमें यहॉ वहॉ से पता चला कस्ट्रक्शन वालो ने कोई सूचना नहीं दी..... आवश्यक कार्यवाही प्रचलित है!´ उलझा हुआ संक्षिप्ध जवाब..... जनता/उच्चाधिकारियों की इस अपेक्षा को अपनी सफाई पेश करता सा कि पुलिस के पास जादू की छड़ी है उसे होने से पहले पता चल जाता है कि कुछ होने वाला है।
तीनो ही जवाब एक दूसरे से अलग..... जुदा अपनी कहानी मे। और फिर शुरू होती है आपा धापी... झींगामुस्ती अपने अपने जवाबों के साथ.......फोन पर फोन...... `जी मेरे लायक कोई सेवा हो तो बतायें´ कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा का ठेकेदार बोलता है बाकी दोनो से...... `अब आया ना ऊंट´.....मीडिया बोलता है मन ही मन..... `टेबिल पर आईये´ और टेबल पर अखाड़ा जमता है बोली लगती है..... दमरू की सॉस की बोली, दमरू की ऑखरी चीख की बोली.... दमरू के परिवार के बेबस भूख की बोली.... बोली.. बोली... बोली और अन्त में मीडिया बोलता नही,.. चुप रह जाता है। अचानक खामोश! कितने ही समाचार हैं जनाब दिखाने को, बताने को। कोई पूछता भी नहीं कि कल जो न्यूज 24 घण्टे तक ऑन स्क्रीन थी आज अचानक बेताल क्यों हो गयी ?
इधर पुलिस की जवाबदेही भी आराम से है `कौन पूछता है ऐसे दमरूओं को... टेबिल पर बैठे तो फाइनल रिपोर्ट नहीं तो चार्जशीट´।

टिप्पणियाँ

  1. आज दिनांक 10 सितम्‍बर 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट दमरू की मौत शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।

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