ज़ख्म नए हैं टीस पुरानी
बहुत दिनों से तरवताल खाली.. गुमसुम.. चुपचाप सा पडा रहा! इतना कुछ पढने को है ब्लॉग की दुनिया में कि लिखने का मौक़ा ही नहीं मिलता ..खैर ..आज अपनी एक पुरानी ग़ज़ल लगा रहा हूँ .. 
ज़ख्म नए हैं टीस पुरानी
कैसे कहूं इसे नई कहानी !
दाग नहीं , तो पड़ जाएगा
सूख चुका सब आँख का पानी !
किस्मत की लकीर पोंछ दूं
हाँथ नहीं दिल की मनमानी !
आओ कुछ सामान जुटा लें
हमें यहीं फिर राह बनानी !
मौला मेरी रज़ा पूछता
कह देता दामन पेशानी !!

ज़ख्म नए हैं टीस पुरानी
कैसे कहूं इसे नई कहानी !
दाग नहीं , तो पड़ जाएगा
सूख चुका सब आँख का पानी !
किस्मत की लकीर पोंछ दूं
हाँथ नहीं दिल की मनमानी !
आओ कुछ सामान जुटा लें
हमें यहीं फिर राह बनानी !
मौला मेरी रज़ा पूछता
कह देता दामन पेशानी !!
सुंदर रचना ,बधाई ।
जवाब देंहटाएंशायद आप चिठ्ठाजगत पर नहीं जुड़े हैं ,क्योंकि चिठ्ठाजगत का विजेट नहीं दिखा । यदि नहीं जुड़े हैं तो पंजीकरण कर लीजिये ,अधिक लोग आपके ब्लाग पर आ सकेंगे ।
जवाब देंहटाएंअमित जी, सबसे पहले तो आपका आभारी हूँ कि वंदना जी के ब्लॉग पर लिखे कमेन्ट से आप सहमत हुए.
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पर आता रहूँगा.
सुन्दर गज़ल ...
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