'बाहर मैं... मैं अंदर...'
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 'मैं अंदर...' हिस्से की जो कविताएँ हैं, वे कवि के गहरे आत्मचिंतन से उपजी हैं। स्वयं को जानने की जिज्ञासा जैसा गूढ़ विषय, कविता के परंपरागत विषयों से सर्वथा भिन्न है, लेकिन व्यंजना में कवि का आशय बहुत कुछ कह जाता है। वैसे तो यह विषय मानवीय या उससे अधिक लगभग दार्शनिक सा विषय है, लेकिन ऐसा विषय होते हुए भी अपने भाषिक प्रयोगों के माध्यम से कवि अनकहे को भी कहने की सामर्थ्य रखता है। भाषा और नए प्रतीकों के प्रयोग से कवि अपने भावों को प्रवाह में उद्घाटित करता चला जाता है।

    आत्म से साक्षात्कार की यह कविता कवि के गहन अंतर्द्वंद्व से उपजी है। वह सहज है, सरल है। अतः दुनियावी अर्थों से एकदम कदमताल नहीं मिला पाता। जीवन- उद्देश्यों को काव्य रूप देकर वह वृहद् आधार प्रस्तुत करता है। आत्म की पहचान और स्वातंत्र्य-अनुभूति उसकी मूल मनोवृत्ति है। उसी को पाने की जद्दोजहद में उसके हृदय से कविता निःसृत हुई है। आधुनिक जीवन शैली के दबावों से मानव संवेदना पर जो कुछ भी असर हुआ है, उसी की प्रतिक्रिया में यह कविता प्रस्फुटित हुई है। यह कविता सूक्ष्म की कविता है, जिसमें सत्य से साक्षात्कार का प्रबल आग्रह दिखाई पड़ता है। कवि का पहचान का यह आग्रह संपूर्णता में है, अंशों या खंडों में नहीं। इसी वजह से खंडित व्यक्तित्व की भयावहता कविता में कई स्थानों पर ध्वनित होती है। इसी के साथ कुछ स्थानों पर भग्न हृदय के भाव भी कविता में सामने आते हैं।

वह मानव होने के मूलभूत आधारों के साथ विमर्श करता है। यहाँ तक कि हस्ताक्षर से पहचान की परिपाटी पर भी वह गहरे सवाल खड़े करता है, क्योंकि अंततः वह भी मात्र दुनियावी पहचान ही तो है। यह ‘ऑटोग्राफ कल्चर’ भौतिकता की पहचान तो धड़ल्ले से करता है, लेकिन उसका स्व उसमें नेपथ्य में कहीं पीछे छूटकर रह जाता है। कवि के विमर्श का मूलभूत मुद्दा यही है। कवि की संवेदना इसी अनुभूति से साक्षात्कार को प्रकट करती है। वह किसी साधक के से भावलोक में अपने अंतर्मन और अपने बाह्य को पूरा- का-पूरा जानने की सक्रिय चेष्टा करता है। स्वयं के होने को जानना ही, इस कविता का मूल उद्देश्य है। वह अक्सर सांसारिक अंतर्विरोधों से कंडीशनिंग नहीं कर पाता। तभी वह ‘इलास्टिक भावनाएँ’ कहकर स्थूल भावनाओं पर कटाक्ष करता है।

 ‘बारिश में बंजर में हरियाली बनने की आशा और संभावना के बीच बंजरता बढ़ेगी’ में आयरनी सहजता के साथ व्यक्त हुई है। अनुभूति में उसने जो कुछ भी अनुभव किया, उसे पूरी स्पष्टता के साथ कविता में व्यक्त कर दिया। ऐसे विषयों में कुछ हिस्सों पर रफू के निशान दिखने का भय बना रहता है, लेकिन कवि की स्पष्टोक्ति किसी को भी, किसी तरह के मेंटेनेंस का कोई अवसर नहीं देती। उसने जो कुछ भी कहा है, बिना लागलपेट के सीधे-सीधे कह डाला है।

  ‘धुएं का भी दम घुटता है’, ‘इकलौती कमीज हो, और बड़े जतन से सुखाने डाली हो’, जैसे उपमानों का प्रयोग कविता का सौंदर्य बोध तो बढ़ाता ही है, उसकी अर्थवेत्ता को अधिक स्पष्ट करने में भी सहायक सिद्ध होता है।

 ‘दूरी स्थिर और पूरा-का-पूरा खंड ही चलायमान है… अंततः बीच की दूरी स्थिर रह जाती है...’ यही वह अंतराल है, जिसे पाटने का आग्रह कवि के स्वर में झलकता है। संक्षेप में, कवि की अभिलाषा ‘एक व्यक्ति, एक पूरा मैं, बनने की है। यही वह उद्दाम भाव है, जो कविता को विराट से जोड़ता है, और उसे सार्वभौभिकता प्रदान करता है।

 'बाहर मैं...' खंड की कविताओं में बाह्य जगत ने कवि का ध्यान अधिक खींचा है। जीवन में घट रही छोटी से लेकर बड़ी घटनाओं को वह एक विशेष दृष्टि से देखता है। इन हिस्सों में जीवन के कई पहलू सामने आते हैं, लेकिन उनमें उसका मानवीय पक्ष इतना घनीभूत हो उठा है कि, वही सबसे ऊपर होकर  उभरता है।
इस खंड में जहाँ एक ओर ‘छत पर अलजेब्रा’, ‘चली तो नहीं गई’ जैसी युवा मन के हल्के प्रसंगों को ध्वनित करती रचनाएँ हैं, तो विपन्न माँ की संतति का बालहठ, चेन स्नैचिंग के बाद लज्जा-भय से चुप रह जाने जैसी घटनाओं को विषय वस्तु बनाकर तंत्र की आइरनी को उघाड़कर रख देने वाली रचनाएँ भी हैं। वर्चुअल रियलिटी जैसी छोटी सी कविता के माध्यम से विज्ञान और संवेदना के अंतर को स्पष्ट किया गया है, तो संक्रमण काल का द्वंद्व भी कवि की दृष्टि से अछूता नहीं रह पाया है।

 संकलन में ‘ऋषभ की स्मृति में’ उपशीर्षक की रचना, असमय चले गए प्रिय को याद करती हुई एक भावमय कविता है। डल झील के बहाने वहाँ के आमजन के मनोभावों को बखूबी व्यंजित किया गया है, तो प्रतिष्ठान प्रायोजित बड़े आयोजनों की खबर भी ली गई है। कुल मिलाकर, इस हिस्से में छद्म विचारधारा से लेकर दंगों तक, जीवन-संसार के सभी पहलुओं की पड़ताल की गई है। उनकी तह में पहुँचने की कोशिश, कवि की संवेदना और मानवता के प्रति उनके आग्रह को पोषित करती हुई नजर आती है।
- ललित मोहन रयाल





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