आम आदमी आजकल


आम आदमी आजकल

चित्र- गूगल से साभार 

आम आदमी आजकल

लड़ने पर उतारू है हर वक्त

उतारू एक उधड़ा हुआ शब्द है

बेहद क्लासिकल अंदाज़ मे उसके साथ आम आदमी

आम लड़कियों मे तब्दील हो जाता है

 

आम आदमी सख़्त नाराज़ है व्यवस्थाओं से

अन्दर घुसकर अपने चीख़ता है बेसाख़्ता

रंगीन कपड़े फाड़कर

जिस्म की ठोस कत्थई भूरी चिकनाई के साथ

एकम एक होना चाहता है आम आदमी

गुपचुप सहूलियतों के बाद भी

 

आम आदमी थककर हांफता है

फिर तर्जनी मे नीली स्याही पोतकर

भर्राई आवाज़ मे डूब जाता है

 

आम आदमी मर जाता है

अमर होने से पहले आजकल

 

बारूद की राख़ और चूल्हे की राख़ मे

‘बू’ का ही अन्तर नहीं जनाब

कहता है आम आदमी

हड्डियों के ढेर से अपना चश्मा लाठी और घड़ी चुनते चुनते

और ठस्स से फिलॉस्फर हो जाता है

 

आम आदमी आम आदमी का दुश्मन है आजकल

अपना दुश्मन है आम आदमी

ऐसा साधारण निष्कर्ष व्यवस्था के नंगेपन को बिला वज़ह जस्टीफ़ाई कर देगा

लेकिन कानूनी किताबें ऐसे निष्कर्षों का शिलालेख हैं

 

रेणु के दो नेपथ्य नायक ‘गरीबी और जहालत’

आम आदमी हैं वास्तव मे

जो अपनी समझ की घड़ी मे दो कांटों की तरह फंसे पड़े हैं

 

आम आदमी बौखलाया हुआ है

कान खराब हो चुके हैं आम आदमी के

वो सुनता चला जाता है

आंखें खराब हो चुकी हैं आम आदमी की

वो देखता चला जाता है

ज़ुबान खराब हो चुकी है आम आदमी की

वो चुप रह जाता है

आदमी बनने की बौखलाहट मे

बन्दर बन गया है आम आदमी

आम आदमी अधिकारों से लबरेज़ है

अधिकारों से अभिशप्त है आम आदमी

सूचना का अधिकार है आम आदमी को

जो अभी अभी प्राप्त सूचना की तरह

अलिखित धाराओं मे मात्र इतनी सूचना है

कि सूचना भर है आम आदमी

 

आम आदमी फंसा पड़ा है

घटना और दुर्घटना के मौलिक अन्तर के बीच

फंसा पड़ा है आम आदमी

भूकम्प के पहले सूखे मे

भूकम्प के बाद बाढ़ मे

 

सफेद चिकना मलमली

खूब गोरा होने चला है आम आदमी

गहरे कत्थई भूरे रंगों पर

चिकत्ते बड़े होने लगे हैं सफेदी के

काटो तो खून नहीं

रगड़ो तो कोई संवेदना नहीं पहुंचती

जिस्मानी तौर पर ये अपने इतिहास से

बलात्कार के दाग़ लगते हैं

अपनी भूलें भूल चुका है आम आदमी

आम आदमी होने की भूल।

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