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अंतर देस
(... शेष कुशल है !)

गुडी गुडी डेज़
(झुटपुटे के खेल)
पूस का महीना था| शाम का समय| पप्पन उदास बैठे थे| इसके प्रदर्शन के लिए उन्होंने ये किया था कि आँखें ऊपर जहां भी शून्य लिखा हुआ हो वहां और अपनी तशरीफ़ की कटोरी घर के बाहर चबूतरे पर टिका दी थी| बहुत प्रयासों के बाद भी उनकी तशरीफ़ अभी इतनी सी ही थी| आमतौर पर उंकडू बैठते थे| आज उदासी की वजह से चबूतरे की ज़रा सी मदद लेकर टिक गए थे| मोहल्ले के लौंडों में सबसे छोटे माने जाते थे पप्पन| देखने में भी और जैसा कि लोगों का कहना था, हरकतों से भी| मासूमियत उनके होठों से टपकती और आँखों से झपकती थी|
     उदासी थी तो उसका कारण भी रहा होगा| कुछ लोग पूछने को आए| वैसे आमतौर पर पप्पन खुद पूछते कम बताते ज़्यादा थे| `क्या हाल हैं?’ `ठीक नहीं है|’ ये दोनों वाक्य एक ही श्री मुख से निकलते वो भी लगभग एक साथ| कभी-कभी तो दूसरा वाला पहले निकल आता| बताते-पूछते और कुछ न बताते न पूछते समय पप्पन के दोनों गालों में गड्ढे पड़े रहते| लोगों का, वही जिनका काम है कहना, कहना था कि गड्ढे सिर्फ गालों में नहीं पड़ते| बोलते तब भी लगता गड्ढे खोद रहे हों वो भी यहां-वहां बेतरतीब तरीके से| बताइये| लोग गड्ढों में भी तरतीब मांगते थे| पप्पन इस बेतरतीबी की वजह से अपने ही बोले में गिर जाते फिर बड़ी मुश्किल से दो-तीन शब्द पकड़ कर बाहर आ पाते| जैसे कि` भईया... मतलब आप समझे?’ अगर टिफिन में परोठे के साथ आम का अचार रखा मिले तो भावना में बहकर माँ से भी कह जाते `भईया... बिना अचार के कितनी परेशानी होगी... युवाओं को परेशानी होगी... किसानों-मजदूरों को परेशानी होगी... मतलब आप समझे?’ माँ क्या समझती उसके लिए ये  बात तो क्या भाषा ही विदेशी होती|
     पप्पन उदास थे और मुहल्ले के अन्य बच्चे खाली| इतने खाली कि उनके गाल बजाओ तो टन्न-टन्न की आवाज़ होती थी| उदासी और खालीपन एक साथ दूर करने के लिए खेलने का प्रस्ताव रखा गया| ज़ाहिर है पढने-लिखने से भी कौन सा पप्पन खुश हो जाते और बच्चे भर जाते| सूरज के नीचे (अंडर द सन; अनुवाद बकौल पप्पन खुद) जितने भी खेल हो सकते थे सब एक-एक करके प्रस्तावित किये गए, एक-एक करके सारे खेल अस्वीकृत होते चले गए| ऐसा लगने लगा कि जैसे संसद का कट मोशन चल रहा हो और सरकार आरामदायक बहुमत में हो| विष अमृत इसलिए कटा क्योंकि इतनी कम उम्र में पप्पन मरना नहीं चाहते थे| ऊंच-नीच बच्चों ने काटा क्योंकि खेल-खेल कर थक चुके थे| ‘अब ऊंच में ऊंच और नीच में नीच का ज़माना चुका हैऐसा उस निगरानी समिति की रिपोर्टें कहतीं जिसके सदस्य बचपने से रिटायर होकर किनारे बैठे वो अड़सैली गा रहे होते, जिसका संज्ञान कोई नहीं लेता था| अक्कड़-बक्कड़ की उम्र नहीं रही| रंग भरी बाल्टी का मौसम नहीं था| पोशम्पा भई पोशम्पा इसलिए कटा क्योंकि कोई जेल जाना नहीं चाहता था| भले उम्र गुज़री हो सारी चोरी में लेकिन सुख चैन बंद हो जाते जुर्म की तिजोरी में| फिर अचानक बतकुच्चन मामा की जानिब से एक सनसनाता हुआ प्रस्ताव आया और सर्व-हल्ले से पास हो गया| प्रस्ताव काना-फूसी उर्फ़ चाइनीज़ व्हिस्पर खेलने का था| लेकिन चूंकि उदासी बड़ी घनी थी और चाइनीज़ में चाइना शब्द जुड़ा होने के कारण राष्ट्रभक्ति पर बिना आग लगे भी आंच आती थी, खेल में कुछ गैर मामूली से बदलाव सुझाए मामा ने| एक खिलाड़ी दूसरे के कान में कुछ चुपके से कहेगा| दूसरा उस सुने हुए का चित्र बनाकर छुपा लेगा| फिर वो अगले को पिछले से सुनी हुई बात चुपके से कान में बताएगा| इस तरह से खेल चलता रहेगा और आख़िरी खिलाड़ी जब सुन लेगा तो वह ज़ोर से बोलकर सुनी हुई बात बताएगा और अपनी ड्राइंग दिखाएगा| फिर उसके पहले का खिलाड़ी फिर उसके पहले का| एक-एक करके सब बताएंगे| सबके बताने का मिलान उनके लिखे हुए कागज़ से भी किया जाएगा|
     खेल यही था कि जो बात पहला खिलाड़ी बोलता है वो आख़िरी तक पहुँचते-पहुँचते कैसे बदल जाती है| एक नई बात ये भी जोड़ दी गई इसमें कि ये सब कहने सुनने का काम सब लोग उकडूं बैठकर और एक दूसरे से छुपाकर करेंगे| ये बिलकुल नया वैरिएंट था खेल का| झाऊ-माऊ-कुतरू इन कानाफूसी प्लेड इन घोड़ा जमाल खाई मैनर| घोड़ा जमाल शाही से घिसकर जमाल खाई हो गया था| लौंडे इस बात से खुश होते थे कि अगर घोड़ा जमाल गोटा खाएगा तो उसके पीछे देखने से क्या दिखेगा| उन्होंने एक कहावत में मामूली सा टर्न देकर उसे ऐसा कर दिया थाअनोखे की अगाड़ी, घोड़े (गधे को घोड़ा बनाया था, बाप भी बना सकते थे) की पिछाड़ी कभी नहीं पड़ना चाहिए|’
     चूंकि कानाफूसी, घोड़ा जमाल खाई और झाऊ-माऊ कुतरू तीनों ही झुटपुटे के खेल थे इसलिए इनका मिश्रण बनाने में कोई दिक्कत नहीं हुई| खेल शुरू हुआ| पप्पन को कुछ ही दिनों पहले घेलुआ बैटिंग और सुर्री बॉल देना बंद हुआ था लेकिन फिर भी सबसे छोटे माने जाते थे इसलिए उन्हें ही इस नए खेल की ग्रैंड ओपनिंग का मौक़ा दिया गया| पप्पन बोलने से पहले गला खंखारते थे| उन्होंने पिछले ही महीने किसी नेता की स्पीच सुनी थी| उन्हें लगा था कि नेता को खाँसी है लेकिन बताया गया कि बोलने से पहले, गला खराब हो हो, खोलना पड़ता है| उन्होंने बतकुच्चन के कान से मुंह सटाकर पहले खंखारा और जब लगा कि चीख पड़ेंगे, फुसफुसाने लगे| ‘करेगा जो भी भलाई के काम उसका ही नाम रह जाएगा…’ ऐसा लगा भूकम्प बस आते-आते रह गया| फिर हाथ झटक कर बाहें ऊपर खींचीं और कागज़ पर कोई कलाकृति उकेरने लगे|
     बतकुच्चन को खंखार नागवार गुज़री| उन्होंने अपना सा मुंह बनाया, जोकि काफ़ी सक्षम था, उनकी जिस लेवेल की खीज थी उसको दर्शाने के लिए, कागज़ उठाया और कलाकृति बनाते-बनाते लोलारक के कान में कुछ फूँका| लोलारक जैसा कि नाम से पता चलता है ग्रामीण परिवेश के प्रतीत होते थे| शहर आते-जाते रहते थे इसलिए गाहे ब गाहे अर्बन ऐंठ में बोलने लगते| लगते उम्र दराज़ थे लेकिन काम ऐसा कर देते कभी-कभी कि लगता उम्र को ही दराज़ में खिसका दिया हो| चलते स्कूल जाने को पर शौचालय की तरफ लुढ़क जाते| हाईली अन प्रेडिक्टेबल| अभी भी उन्होंने मुंह और कान इस तरह से अदले-बदले कि लगा जिससे सुना था उसी को सुना देंगे| एकदम सेकेंड के आख़िरी हिस्से पर जाकर उन्होंने अगले के कान से मुंह सटाया और खेल को आगे बढ़ाया।
     इस तरह कई मुंहों और कानों से होते हुए कहा गया वाक्य आख़िरी खिलाड़ी के कान में पहुंचा| अब बारी थी खेल के दूसरे पड़ाव की| इस बात को जानने की कि सब खिलाड़ियों ने आख़िर क्या सुना और बनाया है? आख़िरी ईंट पर वाई आई पटेल उर्फ़ योगेश ईश्वरलाल पटेल बैठे थे| पहले उन्होंने उस वाक्य को खूब घोंटा| फिर घुटी हुई तबियत से एक रेखाचित्र बनाया और बोले वाक्य ये है-
     मेरा तेरा बस चला तो अपना खुद राम बनाएगा|’
      इसके साथ ही उन्होंने उस ढाँचे को भी हवा में लहराया जो उन्होंने कागज़ पर उकेरा था| उसमें एक बड़ा सा घंटा बना हुआ था| कुछ तो उस कलाकृति और कुछ-कुछ उस कलाकृति और वाई आई के चेहरे की समानता की वजह से एक ठहाका तैर गया हवाओं में|
     पप्पन से पूछा गया| मन तो उनका भी हुआ कि कागज़ का घंटा बजा दें पर जब्त कर गए जज़्बात| उन्होंने मुंह बिचकाया और बोलेज्जे तो उनने ना कही थी|’
     अगले की बारी आई उसने शर्माते हुए सुना हुआ वाक्य बोला-
     देगा बधाई खूब सफाई कर सब प्यारे मेहमान आएगा
    ड्राइंग में वो बनाना झाडू चाहता था लेकिन उसे झाड़ू की सींक चुभने से डर लगता था तो उसने दो अंडे बनाए और उनके बीच एक लकड़ी फंसा दी| वो ये सोचकर खुश हुआ कि उसने अपनी बारीक नज़र से सफाई की जांच के लिए चश्मा बनाया है| देखने वाले इस बात को दिखाकर हंसे जा रहे थे कि तराजू पर बाँट तो बनाए ही नहीं| माप तौल कैसे करेगा| पप्पन से पूछा गया| पप्पन अंडे के फंडे में पड़कर हल्की आवाज़ में मिमियाते हुए बस इतना बोल सकेना! ज्जे तो उनने ना कही थी|’ 
     अगले को अपने टैलेंट प्रदर्शन का मौक़ा मिला| उसने मिमियाते हुए कहा-
  मनरेगा में न आई जो कमाई तो जमकर जाम लग जाएगा
  और इसके समर्थन में कागज़ पर छोटे-छोटे गोले बनाए थे जो पोल्का डॉट्स जैसे दिखते थे| अब तो पप्पन को भी हंसी आ गई| मना करते हुए भी वो हंसते रहे| इशारे से ही कह दिया ना! ज्जे तो उनने ना कही थी|’ 
   शमा अज्जू की तरफ सरकाई गई| अज्जू विचारक ज़्यादा बड़े थे, खेल के नियम-क़ानून के जानकार या छुपे हुए धंधों के मास्टर ये डिसाइड करने में बच्चे गच्चा खा जाते थे और आख़िर में यही विचार बनाते थे कि वो बड़े वाले कुछ तो हैं| वो वाली पहेली केवल उनका कॉन्ट्रीब्यूशन था सोसाइटी को बल्कि उसका जवाब भी सिर्फ वही जानते थे जिसमें कोई आंटी बाज़ार से पंद्रह रू में चौदह का सामान लाती थीं और एक रू कहां गवां आती थीं ये कोई भांप पाता|
     अज्जू बोलने से पहले होठों की टोंटी बनाते फिर चबा कर तरल किये जा चुके शब्द उड़ेलते| उनके चश्मे को देखकर लगता था कि बचपन में ही उसने उनके मासूम चेहरे को अपना लिया होगा| उसी चश्मे से ज़रा सा झांकते हुए उन्होंने टोंटी खोली और सुना हुआ वाक्य सुनाया-
  फेका हे भाई अबी उठाले तू एसे केसे केसे पेसे छुपाएगा
     उसने कागज़ के दोनों तरफ एक जैसी ही डिज़ाइन बनाने की कोशिश की थी| वो दोनों डिज़ाइन दस अंतर ढूँढो के अंदाज़ में दिखा रहे थे| दो से कम अंतर ढूँढने वाले खुद समझने को तैयार बैठे थे कि उन्हें क्या कहा जाए| दूसरी वाली अगर दिखाने के क्रम में देखें तो पहली से ज़्यादा रंगीन थी| पहली वाली अगर देखने के क्रम में देखें तो विराग पैदा कर देती थी|
     पप्पन का पसीना निकल गया समझने में| दो-दो तस्वीर काहे को? लेकिन उनका स्वाभिमान उस टुटहे चबूतरे की तरफ अडिग था जो किनारों की एक-एक ईंट निकल जाने के बाद भी कायम थी और लूडो-लंगड़-लतखोरी के साझे संस्करण वाले खेल तथा खाली टाइम में कल्लू कोतवाल की पीठ खुजाने के काम आती थी| कल्लू की तरह ही पूंछ सिकोड़ते खामखां मुस्कियाते हुए पप्पन बोलेना! ज्जे तो उनने ना कही थी|’
     चलते-चलते क्रम दिगम्बर दा तक पहुंचा| दिगम्बर पहले से ही हंसोड़ थे इस खेल में तो हंसते-हंसते गिर ही पड़ रहे थे| बारी आने पर उन्होंने दो बार हंसी की टिटकारी सी लगाई और फिर बोले भई जो मैंने सुना वो तो है-
     छाता नहीं है तेरे पास अब कैसे तू बच पाएगा
    और देखो मैंने इसमें ही ही हीदिग्गू ने जो कागज़ लहराया उसमें दो छोटे गोले फिर चार रेखाएं और उसके ऊपर कई रेखाओं के साथ एक बड़ा गोला था जिन्हें क्रमशः आदमी और छाता मानने की ज़िद करने लगे दिग्गू| उस कागज़ में जो ग्राफिक्स थीं उसे छाते की जगह जूता कहा जा सकता था| बात न मानी गई| पप्पन ने वही दुहराया ना! ज्जे तो उनने ना कही थी|’ 
      अगले थे लोलारक| ` रिया है जा रिया है खड़ा-खड़ा मुस्करा रिया हैभाव से  मुस्कुराते बैठे थे| जब कोंचा गया तो आँखें नचाते हुए बोले `हम तो भूली गए...’ और अपना कागज़ लहरा दिया| कागज़ कोरा था बिल्कुल उनके मन की तरह कभी भी कुछ भी लिख पड़ने को तैयार| बच्चे ठठा के हंस पड़े|
     हर खिलाड़ी ने अपना वर्ज़न सुना-दिखा रहे थे| बात कहाँ से बिगड़ी है इसका पता अभी तक नहीं चला था| खेल के अलिखित दस्तूर में बच्चे हंस रहे थे| पेट पकड़-पकड़ कर| पहले सिरे पर मामा थे| बतकुच्चन मामा| इस खेल के मास्टर माइंड| अब ये खेल शबाब पर था| उन्होंने अपने बाईं हथेली पर दाहिने पंजे से त्रिताल सा बजाया, आँखें, उसके पीछे-पीछे भृकुटियाँ एक ही स्थान पर एकत्रित कीं लगा कि हठयोग करने वाले हैं फिर एकाएक एक झटके से आँखों में बूँदें, जिसे देखने वाले आंसू कह सकते थे, लाईं और अपना वाक्य सुनाया-
     देखा... सब हम बचे रह गए सीमा पर जवान जाएगा 
     स्पष्ट करने के लिए मामा ने, जैसा उन्होंने मानने के लिए ऐड़ी-सीना-चोटी का दबाव बनाया भारत का, और जैसा सूरत--हाल में वो दिख रहा था फटे जांघिये का, नक्शा बनाया और उसके नीचे `क्काशी से वी लिखा| उस नक्शे और उस कैपिटल `वीसे बहुत से अर्थ निकल सकते थे| मामा ने ये नया ट्विस्ट दे दिया था| ब्लफ का| यही तो मामा का गेम था| मामा इस गेम के गामा थे| इतना आत्मविश्वास था मामा के शब्दों में कि पप्पन भूल गए कि उन्होंने जो शब्द कहे थे वो क्या थे| उन्होंने पहले कागज़ देखकर कन्फर्म किया जिसमें उन्होंने एक लंबी नाक वाले बुजुर्ग का चित्र बनाया था फिर अपना कहा वाक्य फुसफुसाया- `करेगा जो भी अब कैसे केसे केसे जाम मेहमान राम जवान जाएगा...’ आंय ये क्या हुआ? दरअसल पप्पन खुद गच्चा खा गए कि उन्होंनेकरेगा जो भी भलाई के काम उसका ही नाम रह जाएगाकहा था| ये मामा की माया थी|
     इसके बाद तो हंसी का फौव्वारा फूटा फिर टूट ही गया| असल से नक़ल और नक़ल की नक़ल के बीच ज़मीन आसमान का अंतर था| क्या कहा गया था क्या सुना गया और क्या दिखाया गया! लोग हंसते रहे और खेलते रहे| खेलते रहे और हंसते रहे| 
     उस दिन के बाद बाद अचानक इस खेल के प्रति सामने-सामने सम्मान और मन ही मन रुझान बढ़ गया था| ऐसा नहीं था कि ये खेल बतकुच्चन मामा ने बनाया हो पर ऐसा युगांतकारी रूपांतरण मामा की प्रेरणा से ही सम्भव हुआ था| उसके बाद ये खेल मुहल्ले में रोज़ खेला जाने लगा| बहुत से परिवर्तनों के साथ| सुना है अब इसमें ऑडियो-वीडियो भी जोड़ दिया गया है|    
     पप्पन अब उदास नहीं थे| उन्होंने गेम के साथ-साथ तीन और बातें सीखीं| पहली, बात निकल कर न केवल दूर तलक जाती है बल्कि जाते-जाते पलट कर देखती तक नहीं| दूसरी, ज्ञान बांटने से ज्ञान केवल बढ़ता है बल्कि अक्सर लम्बा होकर लटक भी जाता है और तीसरी, व्हेन हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ फ्यूचर... रिहरसेज़ !!
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं|


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