'बाहर मैं... मैं अंदर...' --------------------------- 'मैं अंदर...' हिस्से की जो कविताएँ हैं, वे कवि के गहरे आत्मचिंतन से उपजी हैं। स्वयं को जानने की जिज्ञासा जैसा गूढ़ विषय, कविता के परंपरागत विषयों से सर्वथा भिन्न है, लेकिन व्यंजना में कवि का आशय बहुत कुछ कह जाता है। वैसे तो यह विषय मानवीय या उससे अधिक लगभग दार्शनिक सा विषय है, लेकिन ऐसा विषय होते हुए भी अपने भाषिक प्रयोगों के माध्यम से कवि अनकहे को भी कहने की सामर्थ्य रखता है। भाषा और नए प्रतीकों के प्रयोग से कवि अपने भावों को प्रवाह में उद्घाटित करता चला जाता है। आत्म से साक्षात्कार की यह कविता कवि के गहन अंतर्द्वंद्व से उपजी है। वह सहज है, सरल है। अतः दुनियावी अर्थों से एकदम कदमताल नहीं मिला पाता। जीवन- उद्देश्यों को काव्य रूप देकर वह वृहद् आधार प्रस्तुत करता है। आत्म की पहचान और स्वातंत्र्य-अनुभूति उसकी मूल मनोवृत्ति है। उसी को पाने की जद्दोजहद में उसके हृदय से कविता निःसृत हुई है। आधुनिक जीवन शैली के दबावों से मानव संवेदना पर जो कुछ भी असर हुआ है, उसी की प्रतिक्रिया में यह कविता प्रस्फुटित हुई है। यह कवि...
kaun kehte hai??ye kaun hi kuch dino baad aascharya karenge ki.......... kya ye ho sakta tha?? so jst keep going.
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