वो नहीं आएंगी तुम्हे देखने -नागार्जुन

वो नहीं आएंगी तुम्हे देखने -नागार्जुन

तुम तो नहीं गईं थीं आग लगाने
तुम्हारे हाथ मे तो गीला चीथडा नहीं था.
आँचल की ओट में तुमने तो हथगोले नहीं छिपा रखे थे.
भूख वाला भड़काऊ पर्चा भी तो नहीं बाँट रही थी तुम,
दातौन के लिए नीम की टहनी भी कहाँ थी तुम्हारे हाँथ में,
हाय राम ,तुमतो गंगा नहा कर वापस लौट रही थी.
कंधे पर गीली धोती थी,हाँथ में गंगाजल वाला लोटा था
बी .एस .ऍफ़ . के उस जवान का क्या बिगाडा था तुमने?
हाय राम,जांघ में ही गोली लगनी थी तुम्हारे !
जिसके इशारे पर नाच रहे हैं हुकूमत के चक्के
वो भी एक औरत है!
वो नहीं आयेगी अस्पताल में तुम्हे देखने
सीमान्त नहीं हुआ करती एक मामूली औरत की जांघ
और तुम शहीद सीमा -सैनिक की बीवी भी तो नहीं हो
की वो तुमसे हाँथ मिलाने आएंगी!
(मार्च ७४ में बिहार छात्र आन्दोलन के समय कर्फ्यू में एक महिला को गोली लगने के सन्दर्भ में लिखी गयी नागार्जुन की सीधी कविता जो जौनपुर से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका ”समय” के १५ जून १९७४ के अंक में प्रकाशित हुई थी.)

टिप्पणियाँ

  1. इससे पढ़कर कुछ पुरानी
    पढ़ी हुई पंक्तिया याद आ गयीं :
    मुफलिसों के नसीब में अँधेरा होता है,
    उनकी ज़िन्दगी में ना सवेरा होता है,
    हर इल्जाम लग जाता है किसी मिस्कीं पे,
    के उनकी ज़िन्दगी पे गुरबत का पहरा होता है.
    न कोई हम्दार्दी जतानेवाला होता है,
    न कोई दिलो का हाल पूछनेवाला होता है,
    फक्त गरीब होना ही कसूर है किसी मिस्कीं का,
    जनाजा भी उसे खुद का आप उठाना होता है.
    आह भरना भी मुफलिसों के लिए सितम होता है,
    कोई मेहरबानियों का चलन न उनके साथ होता है.
    सजाएं मिलती है बे-खता उनको,
    जैसे अब्र का माह में बरसना होता है…….

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  2. अमित आप एक दुर्लभ कविता लाए! नागार्जुन के जनवादी स्वरूप और संवेदना को व्यक्त करती एक प्रतिनिधि रचना. 1990 से 1994 तक मुझे नागार्जुन के साथ हर साल एक महीना बिताने मौक़ा मिलता था और आपकी ये पोस्ट मुझे उसी अतीत में ले गई. शुक्रिया.

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